
एजेंसी, नई दिल्ली।
सुप्रीम कोर्ट ने नाबालिगों की संपत्ति से जुड़े मामलों पर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। अदालत ने स्पष्ट किया है कि यदि किसी नाबालिग की संपत्ति उसके माता-पिता या अभिभावक अदालत की अनुमति के बिना बेच देते हैं, तो बालिग होने के बाद वह व्यक्ति उस सौदे को अस्वीकार कर सकता है।
जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस प्रसन्ना बी. वराले की दो सदस्यीय पीठ ने यह फैसला के.एस. शिवप्पा बनाम श्रीमती के. नीलाम्मा मामले में सुनाया। पीठ ने कहा कि बालिग होने के बाद व्यक्ति अपने अभिभावक द्वारा किए गए संपत्ति के सौदे को स्पष्ट और निर्विवाद आचरण से अस्वीकार कर सकता है। इसके लिए उसे मुकदमा दायर करने की आवश्यकता नहीं है — वह सिर्फ अपने व्यवहार या संपत्ति के पुनः हस्तांतरण के माध्यम से सौदे को अस्वीकार कर सकता है।
हिन्दू संरक्षकता अधिनियम का हवाला
फैसले में पीठ ने हिन्दू अप्राप्तव्यता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 7 और 8 का हवाला दिया। अदालत ने कहा कि नाबालिग की संपत्ति के स्वाभाविक अभिभावक को अचल संपत्ति बेचने से पहले न्यायालय की अनुमति लेना अनिवार्य है। यदि यह अनुमति नहीं ली गई है, तो ऐसा सौदा नाबालिग के वयस्क होने के बाद अमान्य घोषित किया जा सकता है।
क्या है पूरा मामला
यह मामला कर्नाटक के दवणगेरे जिले के शामनूर गांव से जुड़ा था। 1971 में रुद्रप्पा नामक व्यक्ति ने अपने तीन नाबालिग बेटों—महारुद्रप्पा, बसवराज और मुगेशप्पा—के नाम पर दो भूखंड (प्लॉट नंबर 56 और 57) खरीदे थे। बाद में रुद्रप्पा ने अदालत की अनुमति लिए बिना ये प्लॉट जयदेवम्मा नामक महिला को बेच दिए।
बालिग होने के बाद बेटों ने संपत्ति पर अपना स्वामित्व दावा करते हुए दीवानी मुकदमा दायर किया, लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी थी। अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां अदालत ने हाईकोर्ट का फैसला पलटते हुए कहा कि नाबालिग के अधिकारों का उल्लंघन हुआ है, और वह अपनी संपत्ति दोबारा प्राप्त कर सकता है।
फैसले का महत्व
यह निर्णय भविष्य में नाबालिगों की संपत्तियों से जुड़े विवादों में कानूनी दिशा तय करने वाला माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से यह स्पष्ट हो गया है कि माता-पिता या अभिभावक को नाबालिग की संपत्ति बेचने से पहले न्यायिक अनुमति लेना आवश्यक है, अन्यथा ऐसा सौदा कानूनी रूप से रद्द किया जा सकता है।
