
बिलासपुर। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए पंकज राम को बरी कर दिया है, जिन्हें जशपुर की निचली अदालत ने अपहरण किए गए व्यक्ति को गलत तरीके से बंधक बनाने का दोषी ठहराया था। न्यायमूर्ति बिभु दत्ता गुरु ने यह कहते हुए निचली अदालत का निर्णय रद्द कर दिया कि अभियोजन पक्ष आरोपी की आपराधिक मनःस्थिति यानी mens rea को साबित करने में असफल रहा। अदालत ने स्पष्ट किया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 368 तभी लागू होती है जब आरोपी को अपहरण की स्पष्ट जानकारी हो और इसके बावजूद उसने पीड़िता को छिपाया या बंधक बनाया हो।
यह मामला वर्ष 2015 का है। पीड़िता ने पुलिस को बताया था कि 20 अप्रैल की शाम को एक पारिवारिक समारोह से लौटते समय उसे एक विधि विरुद्ध किशोर ने रास्ते में रोक लिया। आरोप है कि किशोर ने उसे जबरन खींचकर एक पेड़ के नीचे ले जाकर उसके साथ दुष्कर्म किया और इसके बाद अपने दोस्त पंकज राम के घर ले जाकर पूरी रात कमरे में बंद रखा। अगली सुबह जब पीड़िता ने बाहर निकलने की कोशिश की तो दरवाजा बंद मिला। इसी बीच आरोपी किशोर और पंकज राम वहां लौटे, लेकिन पीड़िता के पिता को आते देख दोनों वहां से भाग गए। थोड़ी देर बाद उसके परिजन पहुंचे और उसे बाहर निकाला।
शुरुआत में पीड़िता ने डर के कारण पूरी सच्चाई सामने नहीं रखी और उसे चाइल्डलाइन के हवाले कर दिया गया। बाद में जब उसने पूरी घटना बताई, तो पुलिस ने आरोपी किशोर के खिलाफ अपहरण और दुष्कर्म का मामला दर्ज किया और जांच के दौरान यह भी सामने आया कि पीड़िता को पंकज राम के घर छिपाया गया था। इसके आधार पर पंकज राम को गिरफ्तार कर आईपीसी की धारा 368 के तहत आरोपित किया गया।
जशपुर की अतिरिक्त सत्र अदालत ने 18 गवाहों की गवाही के आधार पर पंकज राम को दोषी मानते हुए तीन साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। हालांकि अपील के दौरान बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि पंकज राम को झूठा फंसाया गया है। उन्होंने कहा कि पूरे मामले में मुख्य आरोप किशोर पर हैं और यह साबित करने वाला कोई ठोस सबूत नहीं है कि पंकज राम को पीड़िता के अपहरण की जानकारी थी। बचाव पक्ष ने गवाहों की गवाही में विरोधाभास और असंगतियों को भी सामने रखा।
हाईकोर्ट ने सभी गवाहों के बयान का गहराई से अध्ययन किया। पीड़िता ने स्वीकार किया कि वह सीधे तौर पर यह नहीं कह सकती कि पंकज राम ने उसे बंधक बनाया था। उसने यह भी स्वीकार किया कि वह पहले से आरोपी किशोर को जानती थी। उसके परिवार के सदस्यों ने भी यही कहा कि उन्हें पीड़िता का ठिकाना किशोर ने बताया था। इतना ही नहीं, पीड़िता को बाहर निकालने के लिए जो चाबी मिली, वह भी पंकज राम के पास नहीं बल्कि संदीप नामक व्यक्ति के घर से लाई गई थी।
इन परिस्थितियों में अदालत ने माना कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में नाकाम रहा कि पंकज राम को पीड़िता के अपहरण की जानकारी थी। न्यायमूर्ति बिभु दत्ता गुरु ने कहा कि केवल कमरे की चाबी देना अपराध की कानूनी परिभाषा को पूरा नहीं करता। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सरोज कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1973) और ओम प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य (2011) के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि धारा 368 के तहत दोषसिद्धि तभी संभव है जब आरोपी के पास अपहरण की जानकारी हो और उसने जानबूझकर पीड़िता को छिपाया या बंधक बनाया हो।
न्यायालय ने निचली अदालत का 9 फरवरी 2016 का फैसला निरस्त कर दिया और पंकज राम को सभी आरोपों से बरी कर दिया। इस निर्णय ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया कि आपराधिक मामलों में केवल किसी कार्यवाही का होना पर्याप्त नहीं है, बल्कि आरोपी की मंशा और जानकारी भी संदेह से परे साबित होनी चाहिए।
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