
बस्तर। छत्तीसगढ़ में नक्सल उन्मूलन अभियान के बीच सुरक्षाबलों को एक बड़ी सफलता हाथ लगी है। पुलिस ने पीएलजीए के टॉप कमांडर और मोस्ट वांटेड नक्सली माड़वी हिड़मा को एक मुठभेड़ में ढेर कर दिया। आतंक की फाइलों में दर्ज यह नाम वर्षों तक सुरक्षा एजेंसियों के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बना रहा, लेकिन इस खूंखार चेहरे के पीछे एक ऐसी कहानी छिपी थी, जिसे बहुत कम लोग जानते थे—उसकी बेहद अनोखी प्रेम कहानी।
बीहड़ में पनपी ‘हिड़मा–राजे’ की मोहब्बत
आतंक का पर्याय बन चुके हिड़मा के भीतर भी एक आम इंसान की तरह भावनाएं थीं। बताया जाता है कि जंगलों के कठिन जीवन के बीच उसे अपनी साथी राजे से प्यार हुआ। दोनों एक ही नक्सल कमांड स्ट्रक्चर में काम करते थे, जहां लगातार मुलाकातें धीरे-धीरे रिश्ते में बदल गईं।
बीहड़ों की छांव में पनपे इस रिश्ते ने एक दिन शादी का रूप ले लिया। कहा जाता है कि दोनों ने संगठन के भीतर ही सादगी से विवाह किया था। नक्सल कैडर भी उन्हें एक प्रभावशाली जोड़ी के रूप में देखता था।
लेकिन हिंसा और संघर्ष से भरी जिंदगी में उन्होंने कभी बच्चे पैदा करने का निर्णय नहीं लिया। उनकी दुनिया सिर्फ जंगल, हथियार और संघर्ष तक सीमित रही।
कौन था हिड़मा?
माड़वी हिड़मा, जिसे संतोष, इंदमुल और पोडियाम भीमा जैसे नामों से भी जाना जाता था, दंडकारण्य के माओवादी आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बन चुका था।
नाटा कद, दुबला-पतला शरीर और कठोर जीवन—लेकिन कम उम्र में रणनीतिक कौशल के दम पर वह माओवादियों की टॉप सेंट्रल कमेटी में जगह बनाने वाला सबसे युवा चेहरा था।
अधिकांश बड़े कमांडर आंध्रप्रदेश के होने के बावजूद, आदिवासी मूल का हिड़मा नक्सली संगठन का सबसे प्रभावी और खतरनाक नेता माना जाता था।
कैसे बना हिड़मा नक्सली?
हिड़मा सुकमा जिले के पुवर्ती गांव का रहने वाला था—वह इलाका जहां सालों तक नक्सलियों की “जनताना सरकार” का शासन रहा।
वही माहौल, वही विचारधारा और वही व्यवस्था देखकर पले-बढ़े हिड़मा ने कम उम्र में ही नक्सल मार्ग अपना लिया।
सिर्फ 10वीं तक पढ़ाई करने के बावजूद वह अंग्रेजी बोलने में निपुण था और साहित्य तथा माओवादी विचारों का गहरा अध्ययन करता था।
उसकी पहचान कैसे होती थी?
हिड़मा की पहचान उसके बाएं हाथ की एक अंगुली ना होने से की जाती थी।
वह हमेशा नोटबुक साथ रखता था और अपने विचार लिखता रहता था।
सरेंडर कर चुके उसके कई अंगरक्षक बताते हैं कि वह बेहद अनुशासित और विचारधाराप्रेमी था।
बड़े हमलों का मास्टरमाइंड
2010 ताड़मेटला हमला — 76 जवान शहीद
2013 जीरम घाटी हमला — कांग्रेस नेताओं सहित 31 मौतें
2017 बुरकापाल हमला — 25 जवान शहीद
AK-47 से लैस हिड़मा चार स्तर की सुरक्षा में चलता था और पुलिस के लिए सबसे बड़ा टारगेट था।
अंत में गिरा आतंक का अंतिम किला
लंबे समय से तलाशे जा रहे हिड़मा को सुरक्षाबलों ने आखिरकार एक मुठभेड़ में ढेर कर दिया।
उसकी मौत के साथ ही बस्तर में माओवादी संगठन को बड़ा झटका लगा है।
लेकिन हिड़मा जैसे नामों के पीछे छिपी कहानियां बताती हैं कि हिंसा की राह पर चलने वाले भी कभी किसी के लिए धड़कते हैं—बस हालात उन्हें रास्ता बदलने नहीं देते।

